हर साल गणेश चतुर्थी आते ही जगह-जगह लगे पांडाल गणपति पर बने गीतों और भजनों से गुंजायमान हो जाते हैं। लेकिन इस साल कोविड महामारी के कारण हालात अलग हैं। न पांडाल है, न ही उनमें बजने वाले गीत। परंतु यह बीमारी हमें हिंदी फिल्मों में आए गणपति के गीतों और उनके उत्सव को याद करने से तो नहीं रोक सकती ना। <\/p>\n
1980 की फिल्म ‘हमसे बढ़कर कौन’ के गीत ‘देवा हो देवा’ या फिर इसी साल आई एक अन्य फिल्म ‘टक्कर’ के गीत ‘मूर्ति गणेश की, अंदर दौलत देश की’ को कौन भूल सकता है। आश्चर्यजनक बात यह है कि चाहे गाने हों या गणेश विजर्सन से जुड़े अन्य दृश्य, फिल्मों में इनके फिल्मांकन का संबंध भक्तिभाव से कम, ड्रामेटिक सीक्वेंस से ज्यादा रहा है। <\/p>\n
साल 1981 में श्याम बेनेगल की फिल्म ‘कलयुग’ एक ऐसी पहली फिल्म थी जिसमें गणेश विसर्जन के जुलूस को इतनी भव्यता के साथ प्रदर्शित किया गया था। फिल्म का हीरो शशि कपूर जुलूस की भीड़ में फंस जाता है। सड़कों पर जो कोलाहल होता है, वो हीरो के दिल में अशांति के रूप में प्रतिध्वनित होता है। <\/p>\n
साल 1983 में आई सुनील दत्त की फिल्म ‘दर्द का रिश्ता’ उनकी ही व्यक्तिगत जिंदगी से प्रेरित थी। फिल्म में उनकी बेटी खुशबू अस्पताल में कैंसर का सामना कर रही है जहां वो देखती है कि भगवान गणेश उसके घर आ रहे हैं। पिता अस्पताल में ही खुशबू के बिस्तर के पास गणेश की प्रतिमा रख देते हैं और इस तरह खुशबू शांति के साथ दुनिया को अलविदा कर देती है। <\/p>\n
निर्देशक मुकुल आनंद की 1990 की फिल्म ‘अग्निपथ’ का क्लाइमेक्स भी गणेश विसर्जन जुलूस के साथ चरम पर पहुंचता है जब समुद्र के किनारे उमड़ी भारी भीड़ के बीच अमिताभ बच्चन को चाकू मार दिया जाता है। <\/p>\n
इसी तरह 1998 में आई रामगोपाल वर्मा की ‘सत्या’ में विसर्जन जुलूस के शोरगुल में इस बात का खुलासा होता है कि फिल्म का हीरो तो असल में अपराधी है और उसकी प्रेमिका उर्मिला मातोंडकर भौंचक निगाहों से उसे देखती ही रह जाती है।<\/p>\n
1997 में आई आदित्य चोपड़ा की मूवी ‘दिल तो पागल है’ में गणेश की प्रतिमा प्रेम का माध्यम बन जाती है। फिल्म में माधुरी की डांस टीचर अरुणा ईरानी को यह पता चलता है कि माधुरी और हीरो शाहरुख एक-दूसरे से प्यार तो करते हैं, लेकिन उसका इजहार नहीं कर पा रहे हैं। तब अरुणा ईरानी दोनों को अलग-अलग गणेश प्रतिमा देकर कहती हैं कि गणपति ही दोनों को प्रेम का रास्ता दिखाएंगे। <\/p>\n