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किसी बहन के दो सगे भाई तो किसी का जवान बेटा चला गया; परिवार शव लेकर दिल्ली छोड़ रहे

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नई दिल्ली. ‘दंगा’.. येशब्द ही शरीर में सिहरन पैदा कर देता है। और जब आप इसके शिकार हुए लोगों के परिवारों से मिलते हैं तो अंतरआत्मा चीत्कार कर उठती है। दिल्ली के दंगों की अनगिनत कहानियां हैं। हर कहानी पलकें नम करती है। किसी बहन ने भाई खो दिए तो कोई जवान बेटे की राह तक रहा है। ये जानते हुए भी कि वो अब कभी नहीं लौटेगा। सड़कें तो साफ हो जाएंगी। मकानों पर रंग रोगन भी हो जाएगा। लेकिन, जिन्होंने अपनों को खोया उनके चेहरे फिर कभी रोशन नहीं होंगे। भास्कर टीम ने दंगा प्रभावित हौज खास, शिव विहार और मुस्तफाबाद इलाकों का दौरा किया। उन परिवारों से मुलाकात की जिनके अपने दंगे के शिकार बने।

मन में डर बहुत है…
हम शिव विहार पहुंचे। हर कदम पर मुस्तैद पुलिस और सीआरपीएफ के जवान। मुख्य सड़क पर सन्नाटा जैसे मुंह चिढ़ा रहा था। अलबत्ता गलियों में कुछ लोग दिखते हैं। यहां फारुख से मुलाकात होती है। हमने पूछा- माहौल अब कैसा है? गले से मायूसी का सफर तय करलफ्ज लबों तक पहुंचते हैं। फारुख कहते हैं- मन में डर बहुत है। जिन्होंने अपनों को खोया, उन घरों में मातम है। हमारी गुजारिश पर वो एक पीड़ितपरिवार से मिलाने ले जाते हैं। इस घर के दो लड़के अब इस दुनिया में नहीं हैं। दंगाइयों के संकीर्ण सोच की तरह यहां की गलियां भी संकरी हैं। दूर से ही विलाप सुनाई देता है। ये मुस्लिम बहुल इलाका है। हम एक घर के सामने रुकते हैं। आवाज लगाते हैं तो एक महिला बाहर आती हैं। इनका नाम शबनम है। हमारा परिचय जानने के बाद शबनम कहती हैं, “सोमवार को मेरे दोनों भाई अम्मी को नाना के घर छोड़ने गाजियाबाद गए थे। पता चला कि माहौल खराब है तो हमने उन्हें वहीं रुकने को कहा। बुधवार को पुलिस आई तो लगा कि अब टेंशन नहीं है। हमने उन्हें घर आने को कहा। वो निकले लेकिन दरवाजे तक नहीं पहुंच पाए। उनके नाम आमिर और हाशिम थे। अब्बू और छोटी बहन ने थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई। पुलिस ने मरने वालों की फोटो दिखाई। इनमें मेरे दोनों भाई भी थे। आमिर 22 साल का था। इस घर में बहुत जल्द किलकारियां गूंजने वाली थीं। नन्हा मेहमान तो आएगा लेकिन पिता की गोद उसे नसीब नहीं होगी। हाशिम का निकाह नहीं हुआ था।” शबनम का आंचल आंखों से बेसाख्ता गिर रही बूंदों से गीला हो चुका है। दास्तां खत्म करके वे भीगा आंचल लिए अंदर चली गईं।

‘वो चीजों को जोड़ता था, पता नहीं कब सांस टूट गई’
फारुख से हमने पूछा- क्या यहां कोई और भी परिवार है जिसका कोई लाल दंगे का शिकार हुआ हो। वो बोले- हां। उनके साथ हम भागीरथी क्षेत्र पहुंचते हैं। यहां कुछ मुस्लिम करीब आ जाते हैं। फारुख उन्हें हमारा परिचय देते हैं। आवाज देने पर घर से एक शख्स बाहर आते हैं। ये सलमान हैं। इनका छोटा भाई शाबान (22) दंगे में मारा गया। सलमान बताते हैं, “साहब, वो तो वेल्डिंग करता था। औजार लेने चांद बाग ही तक तो गया था। मंगलवार को घर से निकला। अब कभी नहीं लौटेगा। उसको गोली लगी थी। हम मूल रूप से बुलंदशहर के रहने वाले हैं। पुलिस कहती है कि जनाजा यहां मत निकालो वर्ना माहौल फिर खराब हो जाएगा। अब हम बुलंदशहर ही जा रहेहैं। सुपुर्द-ए-खाक वहीं करेंगे।”

लोगों को मंजिल पर पहुंचाते-पहुंचाते शाहिद अंतहीन यात्रा पर चला गया
न्यू मुस्तफाबाद। यहां का शाहिद (23) अब कभी नहीं लौटेगा। बस, तीन महीने पहले ही तो शादी हुई थी। ऑटो से मुसाफिरों को मंजिल -मंजिल पहुंचाता शाहिद खुद ऐसे सफर पर निकल गया, जो खत्म नहीं होता। उसके बहनोई सलीम बताते हैं, “शाहिद ऑटो चलाता था। उस दिन वो काम से लौट रहा था।तीन महीने पहले ही उसकानिकाह हुआ था। उसे गोली लगी थी। हम मदीना नर्सिंग पहुंचे लेकिन तब तक शायद सांसें नहीं बची थीं।” 20 साल के दानिश भी यहीं रहते हैं। उनके पैर में गोली लगी। पिता जलालुद्दीन कहते हैं- मोहन नर्सिंग होम से मेरे बेटे पर गोली चलाई गई। अल्लाह का शुक्र है, मेरा बेटा बच गया।

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